लोकतंत्र का अर्थ है ''जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार''। वर्तमान परिदृश्य में इन शब्दों का वास्तविकता से कहीं दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं दिखता। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में शुमार भारत में लोकतंत्र की हालत बद से बदतर हो चुकी है। मौजूदा हालात को देखकर लगता है कि इस नारे को बदलकर ''राजनेता के द्वारा, राजनीति के लिए, राजनेताओं की सरकार'' रख देना चाहिए। तात्पर्य यह है कि देश में जनता के प्रतिनिधि कहलाने वाले तथाकथित राजनेता का जनता से कोई सरोकार नहीं दिखता है। चुनाव के दौरान जनता के बीच दिखने वाले और खुद को जनता के हितैषी बताने वाले राजनेता चुनाव के बाद जनता से इस कदर कट जाते हैं, जैसे जनता से उनको कोई सरोकार ही नहीं है। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए दुख की बात यह है कि बेचारी जनता के पास अन्य कोई विकल्प है भी कहां? उन्हें तो सर्पनाथ और नागनाथ में से ही किसी एक का चयन करना होता है। हर बार कहा जाता है कि पारदर्शी चुनाव प्रणाली को अपनाते हुए जनता के हित के अनुसार प्रतिनिधियों को मनोनीत किया जाएगा। लेकिन स्थिति वही रहती है ढाक के तीन पात। सभी राजनीतिक पार्टियों में उचित और होनहार प्रत्याशियों की जगह अपने सगे संबंधियों और पैसे लेकर टिकट देने और दिलाने का प्रयास किया जाता है। पिछले दिनों कई बड़े नेताओं ने इस प्रकार के आरोप अपनी ही पार्टी पर लगाए हैं।
भारतीय राजनीति में वंशवाद किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं है। देश की राजनीति में दूर-दूर तक फैल चुकी वंशवाद की इस बेल के दूरगामी परिणाम बेहद घातक साबित होने वाले हैं। हालात यह है कि दक्षिण भारत में देश की बड़ी राजनीतिक पार्टी डीएमके के चीफ एम करूणानिधि ने अपने सुपुत्र एम के स्टालिन को पार्टी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया है।
वहीं कांग्रेस में गांधी परिवार के कब्जे के अलावा उत्तर शेख अब्दुल्ला के पोते और नेशनल कॉन्फ्रेंस से जुड़े फारुख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला, पूर्व में बीजू पटनायक के बेटे नवीन पटनायक और पश्चिम में शिवसेना में बालठाकरे के परिवारजनों का प्रभुत्व अब वंशवाद को भारतीय राजनीति का पर्याय बनाता दिख रहा है। आरजेडी की बात करें तो बिहार में लालू यादव अपनी पत्नी समेत भाइयों को राजनीति में ला चुके हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था का दूसरा घिनौना पहलू देखने को मिलता है चुनावी समर में। जैसाकि अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इन चुनावों के मद्देनजर चुनाव आयुक्त ने चुनावी आचार संहिता को तत्काल प्रभाव से पांचों विधानसभा क्षेत्र में लागू किया है। आचार संहिता के दौरान चुनाव आयोग ने कई निर्देश जारी किए हैं, जिससे चुनाव निष्पक्ष और भयमुक्त कराया जा सके। मतदान की तिथि नजदीक आने तक चुनाव प्रचार के नाम पर करोड़ों रुपए कागज के टुकड़ों की तरह फूंक दिए जाते हैं। प्रचार सामग्री पोस्टर, पैम्फ्लेट का खर्चा तो इतना हो नहीं सकता। दरअसल अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों को आकृष्टï करने के लिए आए दिन भोज आयोजित किए जाते हैं, पैसे देकर मतदाताओं को खरीदा जाता है। इतना ही नहीं सर्वसाधारण को रिझाने के लिए सड़क, अस्पताल, स्कूल बनाने के लोकलुभावन वायदे किए जाते हैं। नशेड़ी मतदाताओं के घरों में शराब पहुंचाकर उन्हें रिझाने का प्रयास किया जाता है। इसके अलावा विपक्षी मतदाताओं को अपनी तरफ करने या मतदान नहीं करने के लिए बाहुबल का प्रयोग करने से भी आज के नेता पीछे नहीं हटते हैं।
चुनावों में औसत राष्टï्रीय मतदान शायद ही कभी साठ फीसदी से अधिक होता है और उन मतों में से सरकार बनाने वाली मुख्य पार्टी को शायद ही कभी तीस फीसदी से अधिक मत मिलता है। इस प्रकार, केन्द्र में जो पार्टी सरकार का नेतृत्व करती है, उसे शायद ही कभी देश के एक चौथाई मतदाताओं का भी समर्थन मिल पाता है। क्योंकि जो पढ़े लिखे लोग हैं और राजनेताओं की चालों को समझते हैं, वे इस खेल को हमारे देश की नियति मान चुके हैं। ऐसे में वे मानकर चलते हैं इसमें कोई परिवर्तन तो हो ही नहीं सकता, अत: वे वोट देने से बचते हैं। राजनेता इसका भी फायदा उठा·र फर्जी मतदान करवाते हैं।
फिर शुरू होता है सरकार के गठन का असली खेल। मतों की गिनती हो जाने और चुनाव परिणामों की घोषणा हो जाने के बाद चुनावी समीकरण को देखते हुए सत्ता हथियाने के लिए परस्पर विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन होता है। उस दौरान हमारे नेता इस बात की भी चिंता नहीं करते हैं, कि उनको किस विचारधारा के आधार पर जनता ने चुना है।
हम जाति, मजहब, क्षेत्रीयता, आदि के नाम पर इस कदर बंटे हुए हैं कि राजनीतिक दल जनमत का अपने-अपने पक्ष में आसानी से ध्रुवीकरण कर लेते हैं। भारतीय संसदीय लोकतंत्र की मौजूदा चुनावी व्यवस्था में शायद ही कभी ऐसी सरकार बन पाएगी, जिसे देश के पचास फीसदी से अधिक मतदाताओं का समर्थन मिल पाए। जब तक ऐसी कोई सरकार नहीं बनती, तब तक हम नहीं कह सकते कि देश में लोकतंत्र है।
लोकतंत्र हमारे लिए एक सपना बन चुका है, जो यदि साकार हो जाए तो भारत में स्वर्ग उतर आए। जब सरकार और प्रशासक, जनता का हुक्म मानें, उनके हिसाब से चलें और खुद को जनता का सेवक समझें। और जनता भी ऐसी हो जो समझदार हो, जिम्मेदार हो, अनुशासित हो और सबसे बढ़कर, सरकार को अपने काबू में रखना जानती हो।
यह तब होगा जब भारत की भीड़, पब्लिक की भूमिका में आएगी, सामूहिक रूप से फैसले लगी, शत-प्रतिशत मतदान करेगी और जिस पार्टी या प्रत्याशी को वोट देगी उसे स्पष्ट रूप से पचास फीसदी से अधिक वोट देगी।
7 comments:
अच्छा लिखा है आपने, इसे थोडा और बदलिये, भ्रष्टों के द्वारा, भ्रष्टों के लिये, भ्रष्टों की
बहुत ही सटीक बातें लिखी है आपने ।
अच्छा आलेख है। लेकिन यह वर्ड वेरीफिकेशन हटाएँ। टिप्पणियाँ करने में परेशान करता है।
आपने बहुत अच्छा लिखा है. बैसे असलियत में भारत में लोकतंत्र नहीं राजतंत्र है.
achhha likha hai.
vote nahi dena bhi vyavastha ke viruddh vote hi hai
hamara blog bhi dekhen
naidahal.blogspot.com
उन्होंने जंग में भारत को हरा दिया है.
अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर भले ही कुछ लोग इस बात पर मुझसे इत्तेफाक न रखे मुझसे बहस भी करें लेकिन ये सच है उन्होंने हमें हरा दिया, ले लिया बदला अपनी....
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