Thursday 19 February 2009

महंगी शिक्षा से बढती खाई

निजी स्कूलों की मनमानी से त्रस्त अभिभावकों के लिए एक और बुरी खबर है, अभिभावकों पर 300 से हजार रुपए तक मासिक भार बढ़ गया है। दिल्ली सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी के निजी स्कूलों में स्तरीय आधार पर फीस वृध्दि की मंजूरी दे दी है। मंत्रिमंडल ने यह फैसला एससी बंसल समिति की सिफारिशों के आधार पर किया है। स्कूलों के वर्तमान शुल्क ढांचे के आधार पर 100 रुपए से लेकर 500 रुपए तक फीस बढ़ाई गई है। फीस वृध्दि सितंबर 2008 से प्रभावी मानी जाएगी। स्कूलों को उनके वर्तमान शुल्क ढांचे के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है।यदि कोई स्कूल वर्तमान में 500 रुपए फीस वसूल कर रहा है तो उसे इसमें 100 रुपए बढ़ाने की अनुमति होगी और यदि कोई स्कूल एक हजार रुपए फीस के रूप में ले रहा है तो वह इसमें 200 रुपए की बढ़ोतरी कर सकता है। ण फीस में 1500 रुपए वसूल करने वाले स्कूल 300 रुपए बढ़ा सकेंगे, जबकि 1500 से ऊपर 2000 रुपए तक की फीस लेने वाले स्कूल को 400 रुपए तक की बढ़ोतरी करने की अनुमति होगी। जिन स्कूलों में वर्तमान में दो हजार रुपए से अधिक फीस वसूल की जा रही है, वे 500 रुपए की वृध्दि कर सकते हैं। दरअसल कई निजी स्कूल अपने शिक्षकों और कर्मचारियों को सरकार के समान वेतन देते हैं। इन स्कूलों का तर्क है कि नया वेतन आयोग लागू होने के कारण इन्हें अपने शिक्षकों को भी नया वेतनमान देना होगा। वैसे देखा जाए तो वेतनमान देने वाले निजी स्कूल मुट्ठी भर हैं, लेकिन फीस बढ़ाने में कोई भी स्कूल पीछे नहीं रहने वाला है। निजी स्कूल वेतनमान का फायदा उठा कर फीस में वृध्दि कर लेना चाहते हैं। वैसे इन स्कूलों को दस प्रतिशत तक प्रतिवर्ष फीस बढ़ाने की छूट मिली हुई है। फीस वृध्दि की सबसे बड़ी मार निजी क्षेत्र में काम करने वाले मध्यम वर्ग के लोगों पर पड़ेगी। सरकारी कर्मचारियों को वेतन वृध्दि का लाभ मिल रहा है, इसलिए वे इसे सहन कर लेंगे, लेकिन इन छह लाख सरकारी कर्मचारियों को छोड़ दें तो अन्य सभी लोग निजी क्षेत्र मे काम कर रहे हैं, जिनके लिए कोई वेतन आयोग नहीं है। जिस कदर शिक्षा मंहगी होती जा रही है उसके हिसाब से आम आदमी को कम खर्च में बेहतर शिक्षा सुविधा उपलब्ध कराने के वादे से मुंह मोड़ती कल्याणकारी सरकारें लगता है वैश्वीकरण के आगे बेबस हो गई हैं। तभी तो निजी स्कूलों में पढाई आम आदमी के बच्चों की पहुंच से लगातार दूर होती जा रही है। यही हाल रहा तो यह शिक्षा व्यवस्था ही मैकाले का वह मिशन पूरा करेगी जिसने अंग्रेजों के सामने आम भारतीयों को असहाय व अछूत जैसी श्रेणी में ला खड़ा कर दिया था। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत की मौजूदा शिक्षा पध्दति पूरी तरह भारतीय हो पाई है? संभवत: पूरी तरह नहीं। ऐसे में अभिभावकों पर खर्च का अतिरिक्त बोझ सिर्फ धनी वर्ग के लिए बेहतर शिक्षा की वकालत नहीं तो और क्या है? यह अजब किस्म का विरोधाभास है कि एक तरफ केंद्र या राज्य सरकारों ने गरीब व अक्षम तबके के विकास के लिए आरक्षण की नीति अपना रखी है तो दूसरी तरफ शिक्षाजगत में महंगी शिक्षा को बढ़ावा देकर एक बड़ी खाई पैदा कर रही है। स्पष्ट है कि यह मजदूर के बेटे को मजदूर ही बनाकर रखने की साजिश है। यह कौन सा तर्क है कि कम काबिल मगर संपन्न घर के बच्चे तो इंजीनियर, डॉक्टर या प्रबंधक बन सकते हैं मगर उसके मुकाबले कुशल मगर गरीब घर के बच्चे इन सुविधाओं से वंचित रह जाएं। ताज्जुब है कि संविधान की दुहाई देकर समानता व शिक्षा का मौलिक अधिकार देने की बात करने वाली सरकार भी शिक्षा को महंगी होती देख रही है। कल्याणकारी सरकारें आखिर किसका कल्याण करना चाहती हैं? फिलहाल तो यह समझ से परे है। सरकारी स्कूल, जो कि कम खर्च में सभी के लिए समान काबिलियत प्रदर्शित करने का जरिया थे, बेहद आधुनिकीकरण के अभाव में पिछड़ते जा रहे हैं। निजी स्कूलों को बढ़ावा देने के कारण अब बंद होने की कगार पर हैं। यानी ऐसी दोहरी शिक्षा व्यस्था लादी जा रही है जो शिक्षा के लिहाज से समाज का वर्गीकरण कर रही है। चमचमाते निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के सामने काबिल होने के बावजूद खुद को हीन मानने को मजबूर किए जा रहे हैं गरीब छात्र। गरीब लोगों की पहुंच से दूर रखने की कवायद में वह सब कुछ हो रहा जो नहीं होना चाहिए। स्कूलों का कहना है कि संस्थान के रखरखाव व ढांचागत खर्च में वृध्दि ने फीस बढ़ाने पर मजबूर कर दिया तथाकर्मियों को नए वेतनमान भी देने पड़ेंगे। कुल मिलाकर शिक्षा संस्थान ऐसे किसी रास्ते पर चलने को तैयार नहीं जिससे मेधावी मगर गरीब छात्र भी ऐसे संस्थान में शिक्षा हासिल कर सकें। या तो सरकार सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर को बढाए नहीं तो निजी स्कूलों में शिक्षा को मध्यम वर्ग की पहुंच तक रखे अन्यथा कुछ छात्रवृत्तियां कितनों का भला कर पाएंगी? आखिर कब तक गरीब छात्रों का भविष्य अधर में लटका रहेगा।

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