Tuesday 16 June 2009

भारत की नौकरशाही सबसे भ्रष्ट

स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया' को आइना दिखाती रिपोर्ट

सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। देश की पराधीनता के दौरान इस नौकरशाही का मुख्य मकसद भारत में ब्रिटिश हुकूमत को अक्षुण्ण रखना और उसे मजबूत करना था। जनता के हित, उसकी जरूरतें और उसकी अपेक्षाएं दूर-दूर तक उसके सरोकारों में नहीं थे। नौकरशाही के शीर्ष स्तर पर इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे जो अधिकांशत: अंग्रेज अफसर होते थे। भारतीय लोग मातहत अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप में सरकारी सेवा में भर्ती किए जाते थे, जिन्हें हर हाल में अपने वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के आदेशों का पालन करना होता था।लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार किए गए शिक्षा के मॉडल का उद्देश्य ही अंग्रेजों की हुकूमत को भारत में मजबूत करने और उसे चलाने के लिए ऐसे भारतीय बाबू तैयार करना था जो खुद अपने देशवासियों का ही शोषण करके ब्रिटेन के हितों का पोषण कर सकें। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए। लेकिन एक बात जो नहीं बदली वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन और असंदिग्ध स्वामीभक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी 'स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया' कहा जाता है। यह वर्ग आज भी अपने को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं के प्रति वह उतना ही उदासीन रहता है। इसका प्रमाण मिलता है पॉलिटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी संस्था की रिपोर्ट से।हांगकांग की इस संस्था ने उत्तरी और दक्षिण एशिया के 12 देशों में कामकाज के लिहाज से भारतीय नौकरशाहों को सबसे निचली पायदान पर रखा है। भारत की नौकरशाही दर्जनभर एशियाई देशों में कामकाज के लिहाज से सबसे पिछड़ी और सुस्त है। यह बात पॉलिटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी (पर्क) नाम की एक संस्था के सर्वेक्षण में सामने आई है। संस्था के सर्वेक्षण में पाया गया है कि भारतीय नौकरशाह राष्ट्रीय और राय स्तर पर खुद को सत्ता का केंद्र बना देते हैं। व्यवस्था में बदलाव की किसी भी कोशिश का ये नौकरशाह कड़ा विरोध करते हैं और इसका असर खुद उन पर और उनके कामकाज पर दिखाई देता है। संदेह और अपवादों की चपेट में आए नौकरशाही का पतन हो रहा है। नौकरशाही का जनसामान्य की समस्याओं और उनके निराकरण से मानो वास्ता खत्म हो गया है। आज हर कोई नौकरशाह किसी कार्य को या तो फंसाता दिख रहा है या उसे करने या कराने के लिए कोर्ट का सहारा ढूंढता नजर आ रहा है। कुछ भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने नौकरशाही को ऐसा बना दिया है कि उसकी सामाजिक कल्याण की इच्छा शक्ति और श्रेष्ठ प्रशासन की भावनाएं ही खत्म होती जा रही हैं। उनका ध्यान केवल अपनी नौकरी, शानदार सरकारी सुख सुविधाओं, विदेश भ्रमण और विलासित वैभव तक केन्द्रित रह गया है। नौकरशाह साफ-साफ कहता है कि उसका किसी से अगर वास्ता है तो अपने नफे नुकसान से। इस तरह देश की नौकरशाही ने नागरिक प्रशासन को अत्यधिक निराश किया है। देश के खजाने के अरबों रुपए इनकी ढपोरशंखी नीतियों और भ्रष्टाचार जनित रणनीतियों पर खर्च होते हैं। इन्हें देश में श्रेष्ठ नागरिक प्रशासन के लिए चुना गया था लेकिन ये भी भ्रष्ट राजनीतिज्ञों से भी बदतर होते जा रहे हैं। इनकी कार्यप्रणाली इतनी बदनाम और ध्वस्त है कि उस पर जनसामान्य भी यकीन करने को तैयार नहीं है। कुछ एक निम्न वर्ग की बात छोड़ दी जाए तो भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में समाज के सबसे संपन्न और प्रभुत्वशाली वर्गों के लोग ही आते रहे जो अपने संस्कारों से ही स्वयं को प्रभुवर्ग का समझते हैं। वे देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत और आम जनता की समस्याओं के प्रति कतई संवेदनशील नहीं होते। उनके अंदर यह भाव शायद ही कभी आता है कि एक लोकसेवक के रूप में उनका उत्तरदायित्व जनता की समस्याओं को प्रभावी रूप से दूर करने का प्रयास करना है।वे नहीं समझते कि देश के विकास की तमाम नीतियों और कार्यक्रमों को तैयार करने तथा उन्हें कार्यान्वित करने में सबसे अहम भूमिका उन्हीं की है। लेकिन यदि भारत की आम जनता आजादी के 59 वर्ष बीत जाने के बाद भी अपने को बदहाल महसूस कर रही है और विकास की किरणों से अपने को अब तक वंचित पा रही है तो इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हमारे नौकरशाह ही हैं। क्योंकि राजनेता तो कुछ ही अवधि के लिए सत्ता में आते हैं और जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरने पर चुनाव हारने के बाद सत्ता से बाहर हो जाते हैं, लेकिन नौकरशाह तो 30-35 वर्षों की लंबी अवधि तक अनवरत रूप से सत्ता में बने रहते हैं और समूचे कार्यपालिका तंत्र की असली बागडोर उन्हीं के हाथों में रहती है। अब तक की दस पंचवर्षीय योजनाओं में देश के विकास के नाम पर जनता से एकत्र किए गए राजस्व में से लाखों करोड़ रुपए व्यय किए गए हैं, लेकिन इस धनराशि का अधिकांश नौकरशाह, राजनेता, माफिया और बिचौलिये हड़पते रहे हैं। आम जनता तक उनका पूरा लाभ नहीं पहुंच पाता है और देश का एक बड़ा हिस्सा आज भी विकास की पटरी से बहुत दूर है।भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया है। वास्तव में नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। विशेषकर उन अधिकारियों की मानसिकता में जो सीधे तौर पर जनता के साथ कार्य-व्यवहार करते हैं, क्योंकि सबसे अधिक अक्खड़, भ्रष्ट और गैर-जवाबदेह निचले स्तर के वे अधिकारी और कर्मचारी होते हैं जिनकी तैनाती जनता के साथ प्रत्यक्ष कार्य-व्यवहार वाले पदों पर की जाती है। जो अधिकारी निचले स्तर से पदोन्नति पाकर शीर्ष पदों पर पहुंचते हैं उनकी मानसिकता अपेक्षाकृत अधिक नकारात्मक और संकीर्ण हो जाती है। नौकरशाही के चरित्र में बदलाव लाने के लिए आम जनता को ही संगठित पहल करनी होगी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए। मीडिया और स्वैच्छिक संगठन इस अभियान में उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकते हैं।