Tuesday 11 November 2008

''राजनेता के द्वारा, राजनीति के लिए, राजनेताओं की सरकार''

लोकतंत्र का अर्थ है ''जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार''। वर्तमान परिदृश्य में इन शब्दों का वास्तविकता से कहीं दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं दिखता। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में शुमार भारत में लोकतंत्र की हालत बद से बदतर हो चुकी है। मौजूदा हालात को देखकर लगता है कि इस नारे को बदलकर ''राजनेता के द्वारा, राजनीति के लिए, राजनेताओं की सरकार'' रख देना चाहिए। तात्पर्य यह है कि देश में जनता के प्रतिनिधि कहलाने वाले तथाकथित राजनेता का जनता से कोई सरोकार नहीं दिखता है। चुनाव के दौरान जनता के बीच दिखने वाले और खुद को जनता के हितैषी बताने वाले राजनेता चुनाव के बाद जनता से इस कदर कट जाते हैं, जैसे जनता से उनको कोई सरोकार ही नहीं है। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए दुख की बात यह है कि बेचारी जनता के पास अन्य कोई विकल्प है भी कहां? उन्हें तो सर्पनाथ और नागनाथ में से ही किसी एक का चयन करना होता है। हर बार कहा जाता है कि पारदर्शी चुनाव प्रणाली को अपनाते हुए जनता के हित के अनुसार प्रतिनिधियों को मनोनीत किया जाएगा। लेकिन स्थिति वही रहती है ढाक के तीन पात। सभी राजनीतिक पार्टियों में उचित और होनहार प्रत्याशियों की जगह अपने सगे संबंधियों और पैसे लेकर टिकट देने और दिलाने का प्रयास किया जाता है। पिछले दिनों कई बड़े नेताओं ने इस प्रकार के आरोप अपनी ही पार्टी पर लगाए हैं।
भारतीय राजनीति में वंशवाद किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं है। देश की राजनीति में दूर-दूर तक फैल चुकी वंशवाद की इस बेल के दूरगामी परिणाम बेहद घातक साबित होने वाले हैं। हालात यह है कि दक्षिण भारत में देश की बड़ी राजनीतिक पार्टी डीएमके के चीफ एम करूणानिधि ने अपने सुपुत्र एम के स्टालिन को पार्टी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया है।
वहीं कांग्रेस में गांधी परिवार के कब्जे के अलावा उत्तर शेख अब्दुल्ला के पोते और नेशनल कॉन्फ्रेंस से जुड़े फारुख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला, पूर्व में बीजू पटनायक के बेटे नवीन पटनायक और पश्चिम में शिवसेना में बालठाकरे के परिवारजनों का प्रभुत्व अब वंशवाद को भारतीय राजनीति का पर्याय बनाता दिख रहा है। आरजेडी की बात करें तो बिहार में लालू यादव अपनी पत्नी समेत भाइयों को राजनीति में ला चुके हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था का दूसरा घिनौना पहलू देखने को मिलता है चुनावी समर में। जैसाकि अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इन चुनावों के मद्देनजर चुनाव आयुक्त ने चुनावी आचार संहिता को तत्काल प्रभाव से पांचों विधानसभा क्षेत्र में लागू किया है। आचार संहिता के दौरान चुनाव आयोग ने कई निर्देश जारी किए हैं, जिससे चुनाव निष्पक्ष और भयमुक्त कराया जा सके। मतदान की तिथि नजदीक आने तक चुनाव प्रचार के नाम पर करोड़ों रुपए कागज के टुकड़ों की तरह फूंक दिए जाते हैं। प्रचार सामग्री पोस्टर, पैम्फ्लेट का खर्चा तो इतना हो नहीं सकता। दरअसल अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों को आकृष्टï करने के लिए आए दिन भोज आयोजित किए जाते हैं, पैसे देकर मतदाताओं को खरीदा जाता है। इतना ही नहीं सर्वसाधारण को रिझाने के लिए सड़क, अस्पताल, स्कूल बनाने के लोकलुभावन वायदे किए जाते हैं। नशेड़ी मतदाताओं के घरों में शराब पहुंचाकर उन्हें रिझाने का प्रयास किया जाता है। इसके अलावा विपक्षी मतदाताओं को अपनी तरफ करने या मतदान नहीं करने के लिए बाहुबल का प्रयोग करने से भी आज के नेता पीछे नहीं हटते हैं।
चुनावों में औसत राष्टï्रीय मतदान शायद ही कभी साठ फीसदी से अधिक होता है और उन मतों में से सरकार बनाने वाली मुख्य पार्टी को शायद ही कभी तीस फीसदी से अधिक मत मिलता है। इस प्रकार, केन्द्र में जो पार्टी सरकार का नेतृत्व करती है, उसे शायद ही कभी देश के एक चौथाई मतदाताओं का भी समर्थन मिल पाता है। क्योंकि जो पढ़े लिखे लोग हैं और राजनेताओं की चालों को समझते हैं, वे इस खेल को हमारे देश की नियति मान चुके हैं। ऐसे में वे मानकर चलते हैं इसमें कोई परिवर्तन तो हो ही नहीं सकता, अत: वे वोट देने से बचते हैं। राजनेता इसका भी फायदा उठा·र फर्जी मतदान करवाते हैं।
फिर शुरू होता है सरकार के गठन का असली खेल। मतों की गिनती हो जाने और चुनाव परिणामों की घोषणा हो जाने के बाद चुनावी समीकरण को देखते हुए सत्ता हथियाने के लिए परस्पर विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन होता है। उस दौरान हमारे नेता इस बात की भी चिंता नहीं करते हैं, कि उनको किस विचारधारा के आधार पर जनता ने चुना है।
हम जाति, मजहब, क्षेत्रीयता, आदि के नाम पर इस कदर बंटे हुए हैं कि राजनीतिक दल जनमत का अपने-अपने पक्ष में आसानी से ध्रुवीकरण कर लेते हैं। भारतीय संसदीय लोकतंत्र की मौजूदा चुनावी व्यवस्था में शायद ही कभी ऐसी सरकार बन पाएगी, जिसे देश के पचास फीसदी से अधिक मतदाताओं का समर्थन मिल पाए। जब तक ऐसी कोई सरकार नहीं बनती, तब तक हम नहीं कह सकते कि देश में लोकतंत्र है।
लोकतंत्र हमारे लिए एक सपना बन चुका है, जो यदि साकार हो जाए तो भारत में स्वर्ग उतर आए। जब सरकार और प्रशासक, जनता का हुक्म मानें, उनके हिसाब से चलें और खुद को जनता का सेवक समझें। और जनता भी ऐसी हो जो समझदार हो, जिम्मेदार हो, अनुशासित हो और सबसे बढ़कर, सरकार को अपने काबू में रखना जानती हो।
यह तब होगा जब भारत की भीड़, पब्लिक की भूमिका में आएगी, सामूहिक रूप से फैसले लगी, शत-प्रतिशत मतदान करेगी और जिस पार्टी या प्रत्याशी को वोट देगी उसे स्पष्ट रूप से पचास फीसदी से अधिक वोट देगी।

Saturday 1 November 2008

किसी की दिवाली किसी का दिवाला

दीपावली का त्योहार आते ही घर-घर में खुशी और आनंद ·ा माहौल छा जाता है। यह ए· ऐसा त्योहार है जिसमें निम्न वर्ग से ले·र उच्च वर्ग सभी सामथ्र्य अनुसार अपने घर ·ो प्र·ाशमय ·र·े लक्ष्मी माता ·ो प्रसन्न ·रना चाहते हैं ता·ि उन·े घर में धन-धान्य समृद्घि ·ी बरसात हो। इस खुशी में चार-चांद लगाने ·े लिए बच्चे हों या बड़े रंग बिरंगी रोशनी फैलाने वाले पटाखे रंग बिरंगी आतिशाबाजी जलाते हैं। इन पटाखों और दीपों ·ी रोशनी में वे अपने जीवन ·ो प्र·ाशमय ·र देना चाहते हैं। पर क्या आप जानते हैं ·ि इतने लोगों ·े जीवन में धूम मचाने वाले व रोशनी फैलाने वाले इन पटाखों ·ो बनाने ·े लिए लाखों बच्चों ·ा जीवन अंध·ार ·ी गर्त में समा जाता है। तब जा·र रोशन हो पाती है हमारी दीपावली। जी हां हम बात ·र रहे हैं उन लाखों मासूमों ·ी जो दो जून ·ी रोटी ·े लिए इन पटाखा फैक्ट्रियों में अपना बचपन खोने ·ो मजबूर हैं। भारत में ·ई शहर हैं जो पटाखे बनाने वाले ·ारखानों से भरे पड़े हैं और इन ·ारखानों ·े श्रमि· ज़्यादातर मासूम बच्चे हैं यानि ·ी बाल श्रमि·। घर में गरीबी ·े चलते यह बच्चे बाल मजदूरी ·े शि·ार हैं। इन पटाखों ·ो बनाते समय ये बच्चे अपनी आखें खो बैठते हैं, अपाहिज हो जाते हैं या पटाखों ·े मसालों से हुई बीमारियों से इन·ी मृत्यु त· भी हो जाती है। इतना ही नहीं इन बच्चों ·ो इन·े ·ाम ·ा पूरा मेहनताना भी नहीं मिल पाता। गौतरतलब है ·ि यहां प्रत्ये· बच्चे ·ो 100 पटाखे बनाने पर 10 से 20 रुपये मिलते हैं। जैसा ·ि यह जोखिम भरा ·ाम है, इसलिए दुर्घटना ·ी आशं·ा सदैव बनी रहती है। परंतु इतने पर भी इन बच्चों ·ी समस्या से ·िसी ·ो ·ोई सरो·ार नहीं। जैसा ·ि अभी हाल में देखने ·ो मिला, राजस्थान ·े भरतपुर जिले ·े डीग ·स्बे में ए· अवैध पटाखा फैक्टरी में हुए विस्फोट से 27 लोगों ·ी मौत हुई है और 20 लोग घायल हुए हैं। मरने वालों में ए· दर्जन बच्चे भी शामिल हैं। राज्य सर·ार ने भरतपुर ·े संभागीय आयुक्त से इस हादसे ·ी प्रशासनि· जांच ·राने और मृत·ों ·े परिजनों ·ो ए·-ए· लाख रुपए तथा गंभीर रूप से घायलों ·ो 25-25 हजार रुपए ·ी सहायता राशि देने ·ा फैसला ·िया। सर·ारी आं·ड़ों ·े अनुसार मरने वाली ·ी बताई गई संख्या में ए· दर्जन बच्चों ·ा होना ही स्थिति ·ो जगजाहिर ·रने ·े लिए ·ाफी है। अब इन·ो ·ितनी सहायता राशि मिल पाएगी और ·ितने बच्चों ·ा जीवन बच स·ेगा यह अपने आप में ए· वि·ट सवाल है। वर्ष 1991 में दिए गए ए· फैसले में अदालत ने ·ानून और जमीनी सच्चाई में सामंजस्य स्थापित ·रने ·ी ·ोशिश ·ी थी। न्यायालय ने ·ुछ निर्देश जारी ·िए थे जिनमें ·हा गया था ·ि छोटे बच्चों ·ो ·िस तरी·े ·े ·ाम दिए जा स·ते हैं। बच्चों ·ो पै·िंग ·े ·ाम में लगाया जा स·ता है पर यह ध्यान रखना जरूरी है ·ि उत्पादन वाले स्थान से उन्हें दूर रखा जाए। उन्हें ऐसी ·िसी जगह भी ·ाम पर नहीं लगाया जाना चाहिए जहां दुर्घटना ·ी आशं·ा बनती हो। साथ ही यह भी निर्देश जारी ·िए गए थे ·ि ·ाम ·े लिए बच्चों ·ो ·ितना न्यूनतम भुगतान ·िया जाए। अदालत ने सुझाव दिया था ·ि ·म से ·म वयस्·ों ·ो ·िए जा रहे भुगतान ·ा 60 फीसदी तो बच्चों ·ो दिया ही जाना चाहिए। साथ ही राज्य सर·ारों से यह भी ·हा गया ·ि अगर मुम·िन हो स·े तो वे इससे अधि· भुगतान भी सुनिश्चित ·रें। अदालत ने यह भी ·हा था ·ि सर·ार ·ो यह भी सुनिश्चित ·रना चाहिए ·ि हर बच्चे ·े लिए 50,000 रुपये त· ·ा बीमा ·राया जाए, जिस·े प्रीमियम भुगतान ·ी जिम्मेवारी नियोक्ता ·ी हो। शिक्षा, चि·ित्स·ीय सुविधा से जुड़े सुझाव भी दिए गए थे। इन सभी आदेशों और निर्देशों ·ो याद ·रने ·ा म·सद बस यही जताना है ·ि इन्हें अब भूला जा चु·ा है। इन पटाखा बनाने वाली फैक्ट्रियों में खुलेआम नियमों ·ा उल्लंघन हो रहा है, ले·िन देखने वाला ·ोई नहीं है। इन फैक्ट्रियों मेंं चौदह साल से भी ·म उम्र ·े बच्चे ·ार्य ·रते हैं। उन्हें फैक्ट्री प्रबंधन उचित मजदूरी भी नहीं देता है। फैक्ट्री प्रबंधन इन·ा बीमा तो क्या ·रवाएगा इन·ा रि·ार्ड त· नहीं रखता, जब·ि नियम अनुसार फैक्ट्री में ·ाम ·रने वाले प्रत्ये· मजदूर ·ा रि·ार्ड रखना जरूरी होता है। ए· दश· पहले त· बाल श्रम पर उच्चतम न्यायालय ·ी पैनी नजर हुआ ·रती थी और जोखिम भरे ·ामों में अगर बच्चों ·ो लगाया जाता था तो ·ड़ी ·ार्रवाई ·े लिए भी वह मुस्तैद रहा ·रता था। परंतु अब बाल श्रम ·ा गोरखधंधा ·म से ·म 25 क्षेत्रों में फैला हुआ है। पटाखा, स्लेट-चौ· ·ी खानें, शीशे, ·ालीन, दरी, हीरे ·ी नक्काशी, रत्न और रेशम उद्योगों में बच्चों ·ो लगाया जाना आम हो चु·ा है। बाल श्रम उन्मूलन ·े लिए उच्चतम न्यायालय ने अब त· जो आदेश जारी ·िए हैं अगर उन पर गौर ·िया जाए तो पता चलेगा ·ि उनमें से ज्यादातर ·ो या तो भुला दिया गया है या उन पर ·ोई ·ार्रवाई नहीं ·ी गई। त·रीबन दो दश· पहले सर्वोच्च न्यायालय ने बंधुआ मजदूरों ·े ·ई परिवारों ·ो रिहा ·िया था, जिनमें बच्चे भी शामिल थे। बाद में बाल श्रम ·ी समस्या ·ो उभारते हुए तमाम याचि·ाएं दायर ·ी गईं। उन·े बाद अदालत ने प्रत्ये· क्षेत्र में हालात ·ा जायजा लेने ·े लिए समितियां गठित ·ीं। ले·िन, बच्चों ·े ह· में दिए गए इन आदेशों ·ो पूरा देश भुला चु·ा है क्यों·ि अदालत या ·िसी दूसरे विभाग ने इन पर ·ोई ·ार्रवाई ही नहीं ·ी।आज दीपावली ·े इस अवसर पर जब·ि पूरा देश खुशियां मनाने में मशगूल है तो क्या इन मासूमों ·ो हमारी तरफ दीपावली मनाने ·ा ह· नहीं है? क्यों दीपावली इन·े लिए सिर्फ ·ाम ·ा भारी बोझ है। क्या इन बच्चों ·ा बचपन हमें यूं ही अपने आनन्द ·े लिए उजडऩे देना चाहिए?आखिर ये भी तो हमारे समाज ·ा ही हिस्सा हैं आखिर इन·ी समस्या से ·ौन सरो·ार रखेगा? हमारे देश में सर·ारी उदासीनता और शक्तिशाली निहित स्वार्थी तत्वों ने इस समस्या ·ो अत्यधि· जटिल बना दिया है। जब·ि संविधान में भी इस बात ·ा स्पष्ट उल्लेख है ·ि 14 साल से ·म उम्र ·े बच्चों ·ो ·ाम पर लगाना ·ानूनी अपराध है। ऐसे में यदि समाज ·ा प्रत्ये· वर्ग, प्रत्ये· व्यक्ति इन बच्चों ·े जीवन ·ो अंध·ार ·ी गर्त से उजाले में लाने ·े लिए छोटा प्रयास भी ·रे तो शायद हमारी सर·ार और न्यायपालि·ा भी चेत जाए।

दीप जला कर दीपावली बनाओ बचपन जलाकर न


भारत में बच्चों को देश का भविष्य कहा जाता है और कहा जाता है की अगर भारत को सुनहरे भविष्य की तरफ देखना है, तो हमें वर्तमान में इन बच्चों को सहेजकर रखना होगा। इन बच्चों को न सिर्फ बेहतर स्वास्थ्य-शिक्षा सुविधाएं मुहैया करनी होगी, बल्कि उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए प्रशिक्षित भी करना होगा। अगर वर्तमान भारत को देखेंगे की इस देश में सबसे ज्यादा उपेक्षित बच्चे ही होते हैं। आज देश में लाखों बच्चे बाल मजदूरी करने को मजबूर हैं। इस मामले में पटाखा फैक्ट्री इन बाल मजदूरों के लिए अभिशाप बनकर सामने आई है। देश भर की विभिन्न पटाखा फैक्ट्रियों में एक लाख से ज्यादा बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं। जिनका जीवन आतिशबाजी बनकर रह गया है। जिस तरह से पटाखे जलते हैं उसी प्रकार से पटाखा फैक्ट्रियों में होने वाली दुर्घटनाओं के दौरान मासूम बच्चों का शरीर भी जलता है सरकार और प्रशासन की लापरवाही कई बार मिलीभगत के चलते इस बाल मजदूरी पर अंकुश नहीं लग पाया है। इन सबके अलावा ऐसी बाल मजदूरी के लिए सबसे ज्यादा दोषी वह लोग हैं जो जानबूझkर ऐसे पटाखों का इस्तेमाल करते हैं जिनके निर्माण में बाल मजदूरी को बढ़ावा दिया जाता है। दीपावली हिन्दुओं का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। इस त्योहार में सभी उम्र वर्ग के लोगों द्वारा खुशी जाहिर करने का पटाखा सबसे प्रचलित और आकर्षक माध्यम है। यही कारण है की इस दौरान अरबों रुपये का बिजनेस केवल पटाखों के माध्यम से किया जाता है। पटाखा के काम में जहां कई बड़ी कम्पनिया लगी हुई हैं। वहीं हर छोटे-बड़े शहरों में छोटे स्तर पर स्थानीय कम्पनिया भी इस कार्य से जुड़ी हुई हैं। इन कंम्पनियों का कोई सरकारी रिकॉर्ड नहीं होता है। तथा ये कम्पनिया समय विशेष के हिसाब से कारोबार को शुरू करती है और थोड़े अंतराल के बाद बंद कर देती है। ऐसी कम्पनिया में सबसे ज्यादा बाल मजदूरी होती है। इन छोटी कम्पनिया की स्थानीय प्रशासन के साथ सांठ गांठ होती है। जिस कारण न तो अवैध पटाखा निर्माण पर रोक लग पाती है और न ही इन फैक्ट्रियों पर काम करने वाले बाल मजदूरी पर । बचपन बचाओ आंदोलन के तहत वर्ष 1993 से हमने एक अभियान चलाया है जिसका नारा है दीप जला कर दीपावली बनाओ बचपन जलाकर नहीं। एक लाख बच्चों का जीवन जलाकर दीपावली मनाना हमारी सभ्यता, संस्कृति , परंपरा, तथा लोक हित के खिलाफ है। पटाखा फैक्ट्री में काम करने वाले बच्चों के साथ एक बात और है जो बच्चे इन फैक्ट्रियों में काम नहीं कर रहे हैं। उनके शरीर पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। पोटाशियम, एलुमिनियम जैसे कई जहरिले रसायनों का दुष्प्रभाव इन बच्चों के शरीर पर पड़ता है। इससे बच्चे किसी एक रोज हुई दुर्घटना के ज्यादा रोज-रोज होनेवाले कुप्रभाव से मर रहे हैं। ऐसे में कह सकते हैं की इन बच्चों के साथ हर रोज दुर्घटना हो रही है। सरकार , प्रशासन और जनता सभी मूक दर्शक बनकर देख रहे हैं। मेरे विचार से हम सभी को सामूहिक प्रयास के तहत इस बाल मजदूरी को काफ़ी हद तक ·कम कर सकते हैं।

विचार : कैलाश सत्यार्थी संस्थापक , बचपन बचाओ आंदोलन