Tuesday 16 June 2009

भारत की नौकरशाही सबसे भ्रष्ट

स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया' को आइना दिखाती रिपोर्ट

सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। देश की पराधीनता के दौरान इस नौकरशाही का मुख्य मकसद भारत में ब्रिटिश हुकूमत को अक्षुण्ण रखना और उसे मजबूत करना था। जनता के हित, उसकी जरूरतें और उसकी अपेक्षाएं दूर-दूर तक उसके सरोकारों में नहीं थे। नौकरशाही के शीर्ष स्तर पर इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे जो अधिकांशत: अंग्रेज अफसर होते थे। भारतीय लोग मातहत अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप में सरकारी सेवा में भर्ती किए जाते थे, जिन्हें हर हाल में अपने वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के आदेशों का पालन करना होता था।लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार किए गए शिक्षा के मॉडल का उद्देश्य ही अंग्रेजों की हुकूमत को भारत में मजबूत करने और उसे चलाने के लिए ऐसे भारतीय बाबू तैयार करना था जो खुद अपने देशवासियों का ही शोषण करके ब्रिटेन के हितों का पोषण कर सकें। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए। लेकिन एक बात जो नहीं बदली वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन और असंदिग्ध स्वामीभक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी 'स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया' कहा जाता है। यह वर्ग आज भी अपने को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं के प्रति वह उतना ही उदासीन रहता है। इसका प्रमाण मिलता है पॉलिटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी संस्था की रिपोर्ट से।हांगकांग की इस संस्था ने उत्तरी और दक्षिण एशिया के 12 देशों में कामकाज के लिहाज से भारतीय नौकरशाहों को सबसे निचली पायदान पर रखा है। भारत की नौकरशाही दर्जनभर एशियाई देशों में कामकाज के लिहाज से सबसे पिछड़ी और सुस्त है। यह बात पॉलिटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी (पर्क) नाम की एक संस्था के सर्वेक्षण में सामने आई है। संस्था के सर्वेक्षण में पाया गया है कि भारतीय नौकरशाह राष्ट्रीय और राय स्तर पर खुद को सत्ता का केंद्र बना देते हैं। व्यवस्था में बदलाव की किसी भी कोशिश का ये नौकरशाह कड़ा विरोध करते हैं और इसका असर खुद उन पर और उनके कामकाज पर दिखाई देता है। संदेह और अपवादों की चपेट में आए नौकरशाही का पतन हो रहा है। नौकरशाही का जनसामान्य की समस्याओं और उनके निराकरण से मानो वास्ता खत्म हो गया है। आज हर कोई नौकरशाह किसी कार्य को या तो फंसाता दिख रहा है या उसे करने या कराने के लिए कोर्ट का सहारा ढूंढता नजर आ रहा है। कुछ भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने नौकरशाही को ऐसा बना दिया है कि उसकी सामाजिक कल्याण की इच्छा शक्ति और श्रेष्ठ प्रशासन की भावनाएं ही खत्म होती जा रही हैं। उनका ध्यान केवल अपनी नौकरी, शानदार सरकारी सुख सुविधाओं, विदेश भ्रमण और विलासित वैभव तक केन्द्रित रह गया है। नौकरशाह साफ-साफ कहता है कि उसका किसी से अगर वास्ता है तो अपने नफे नुकसान से। इस तरह देश की नौकरशाही ने नागरिक प्रशासन को अत्यधिक निराश किया है। देश के खजाने के अरबों रुपए इनकी ढपोरशंखी नीतियों और भ्रष्टाचार जनित रणनीतियों पर खर्च होते हैं। इन्हें देश में श्रेष्ठ नागरिक प्रशासन के लिए चुना गया था लेकिन ये भी भ्रष्ट राजनीतिज्ञों से भी बदतर होते जा रहे हैं। इनकी कार्यप्रणाली इतनी बदनाम और ध्वस्त है कि उस पर जनसामान्य भी यकीन करने को तैयार नहीं है। कुछ एक निम्न वर्ग की बात छोड़ दी जाए तो भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में समाज के सबसे संपन्न और प्रभुत्वशाली वर्गों के लोग ही आते रहे जो अपने संस्कारों से ही स्वयं को प्रभुवर्ग का समझते हैं। वे देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत और आम जनता की समस्याओं के प्रति कतई संवेदनशील नहीं होते। उनके अंदर यह भाव शायद ही कभी आता है कि एक लोकसेवक के रूप में उनका उत्तरदायित्व जनता की समस्याओं को प्रभावी रूप से दूर करने का प्रयास करना है।वे नहीं समझते कि देश के विकास की तमाम नीतियों और कार्यक्रमों को तैयार करने तथा उन्हें कार्यान्वित करने में सबसे अहम भूमिका उन्हीं की है। लेकिन यदि भारत की आम जनता आजादी के 59 वर्ष बीत जाने के बाद भी अपने को बदहाल महसूस कर रही है और विकास की किरणों से अपने को अब तक वंचित पा रही है तो इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हमारे नौकरशाह ही हैं। क्योंकि राजनेता तो कुछ ही अवधि के लिए सत्ता में आते हैं और जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरने पर चुनाव हारने के बाद सत्ता से बाहर हो जाते हैं, लेकिन नौकरशाह तो 30-35 वर्षों की लंबी अवधि तक अनवरत रूप से सत्ता में बने रहते हैं और समूचे कार्यपालिका तंत्र की असली बागडोर उन्हीं के हाथों में रहती है। अब तक की दस पंचवर्षीय योजनाओं में देश के विकास के नाम पर जनता से एकत्र किए गए राजस्व में से लाखों करोड़ रुपए व्यय किए गए हैं, लेकिन इस धनराशि का अधिकांश नौकरशाह, राजनेता, माफिया और बिचौलिये हड़पते रहे हैं। आम जनता तक उनका पूरा लाभ नहीं पहुंच पाता है और देश का एक बड़ा हिस्सा आज भी विकास की पटरी से बहुत दूर है।भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया है। वास्तव में नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। विशेषकर उन अधिकारियों की मानसिकता में जो सीधे तौर पर जनता के साथ कार्य-व्यवहार करते हैं, क्योंकि सबसे अधिक अक्खड़, भ्रष्ट और गैर-जवाबदेह निचले स्तर के वे अधिकारी और कर्मचारी होते हैं जिनकी तैनाती जनता के साथ प्रत्यक्ष कार्य-व्यवहार वाले पदों पर की जाती है। जो अधिकारी निचले स्तर से पदोन्नति पाकर शीर्ष पदों पर पहुंचते हैं उनकी मानसिकता अपेक्षाकृत अधिक नकारात्मक और संकीर्ण हो जाती है। नौकरशाही के चरित्र में बदलाव लाने के लिए आम जनता को ही संगठित पहल करनी होगी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए। मीडिया और स्वैच्छिक संगठन इस अभियान में उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकते हैं।

Thursday 19 February 2009

कहां लगाएं सुरक्षा की गुहार?

रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना बलात्कार, कानून की भाषा में एक बड़ा अपराध ही नहीं बल्कि समाज के भी रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना है। लेकिन बात जब गैंग रेप की हो, तो इसकी भयावहता का अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जाता है। नोएडा में एमबीए की छात्रा से गैंग रेप की घटना से एक बार फिर राजधानी व इससे सटे उपनगरों में महिलाओं की सुरक्षा को आशंका के घेरे में ला कर खडा कर दिया है। उक्त घटना में छात्रा अपने सहपाठी युवक के साथ सेक्टर-38 ए स्थित मॉल 'ग्र्रेट इंडिया प्लेस' आई थी। शॉपिंग करने के बाद दोनों अपनी वैगनआर कार से घर जाने के लिए निकले। वहां से कुछ ही दूरी पर शाम के समय में तीन-चार बाइकों पर सवार युवकों ने उन्हें अगवा कर लिया और सुनसान स्थान पर ले जाकर लडक़ी का सामूहिक बलात्कार किया और लडक़े की जमकर पिटाई की। पुलिस द्वारा कराई गई मेडिकल जांच में छात्रा के साथ बलात्कार की पुष्टि के बाद सक्रियता दिखाते हुए सेक्टर-58 स्थित गढ़ी चौखंडी गांव में पुलिस की कई टीमों ने दबिश देकर कई आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। अब सवाल यह उठता है कि जब अपराधी शाम के समय सरेआम किसी की गाडी में घुसकर लडक़ी का सामूहिक बलात्कार कर देते हैं, तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चलने वाली मध्यम वर्गीय कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा का क्या हाल होगा। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित राजधानी के अस्पतालों में धडल्ले से हो रही भ्रूण हत्या व कम होने वाले लिंगानुपात को बढ़ाने के लिए भले ही लाडली जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं को लागू करने का काम कर रही हैं और पुलिस के आला अधिकारी राजधानी में महिला अपराध कम होने का दम भरते हैं, लेकिन राजधानी और एनसीआर में महिलाओं के साथ हो रही घटनाओं सरकार के बयानों की हवा निकाल रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1971 से बलात्कार मामलों में 678 प्रतिशत बढाेतरी हुई है। ये आंकडे सरकार के द्वारा किए गए तरह-तरह के दावे-प्रतिदावे की हकीकत बयान करने के लिए काफी हैं। ये दावे सिर्फ हाथी के दिखाने वाले दांत ही साबित हो रहे हैं। राजधानी की मुख्यमंत्री चाहती हैं कि बालिकाओं और महिलाओं को स्वच्छंदता के साथ जीने का अधिकार मिले। उनके साथ छेड़छाड़ न हो और पारिवारिक माहौल व उनकी सोच में बदलाव आए। मगर पुलिस के नकारात्मक रवैये के कारण दिल्ली की महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। चाहे वह राह-बाजार हो, आधुनिक शॉपिंग मॉल्स हों, सिनेमा घर हों, बस हो या फिर स्कूल-कालेज। हर स्थान पर महिलाएं असुरक्षित हैं। यहां आए दिन महिलाओं के साथ छेड़छाड़, लूटपाट, बलात्कार, अगवा और हत्या जैसी घटनाएं घटित होती हैं। बावजूद इसके इनमें से अधिकांश छेड़छाड़ व चैन-झपटमारी की शिकायत दर्ज नहीं की जाती। यही वजह है कि दिल्ली देश के उन 35 शहरों में सबसे शीर्ष स्थान पर है जहां महिलाओं के साथ सर्वाधिक आपराधिक वारदातों को अंजाम दिया जाता है। यहां सबसे उल्लेखनीय बात यह भी है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री ने भी अपने एक बयान में कहा है कि दिल्ली की महिलाएं थानों में भी सुरक्षित नहीं हैं। राजधानी में बढ़ते महिला अपराध को लेकर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करें तो यह स्वयं सिध्द हो जाता है कि दिल्ली महिला अपराध में न केवल शीर्ष स्थान पर है बल्कि यहां की महिलाएं और गर्भस्थ बालिका शिशु सुरक्षित नहीं है। क्योंकि यहां दहेज को लेकर ही शिशु को जन्म देने से पहले कई महिलाओं की हत्या कर दी जाती है। वर्ष 2005 व 2008 के आंकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष यहां की करीब 27.1 प्रतिशत महिलाएं आपराधिक वारदातों का शिकार होती हैं, जोकि देश में होने वाली कुल आपराधिक घटनाओं का 14.1 प्रतिशत है। वर्ष 2005 में बलात्कार के 562 मामले दर्ज किए गए थे, जबकि अगवा करने के 900, यौन शोषण के 197 और दहेज हत्या के 94 मामले दर्ज किए गए थे। ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2008 तक इन घटनाओं में दो गुणा से भी अधिक वृध्दि हुई है। उपरोक्त सभी आकड़े इस बात को साबित करते हैं कि दिल्ली में महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं? यहां गौर करने वाली बात यह है कि समस्या की बात तो सभी करते हैं पर क्या कारण है कि महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने में समाज, सरकार, पुलिस सभी नाकाम साबित हो रहे हैं। एक के बाद एक यौन शोषण, छेडछाड, बलात्कार के मामले हमारी पुलिस व्यवस्था व प्रशासन की पोल खोलती हैं। अब हालात यह हो गए हैं कि न केवल रात में बल्कि दिन में भी अपने परिजनों या मित्रों के साथ चलने में भी असुरक्षित हो गई हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि समय के साथ भले ही सब कुछ बदल गया हो, पर महिलाओं के प्रति पुरुषों की मानसिकता और क्रूरता का रवैया अभी तक नहीं बदला है। वर्षों से चली आ रही पुरूष मानसिकता को तो समय के साथ धीरे-धीरे ही बदला जा सकता है। यदि पुलिस और कानून की लचर व्यवस्था में सुधार करके अपराधियों पर शिंकजा कसा जाए तो यकीनन अपराधियों में भय व्याप्त होगा। इस घटना से डर जाने या इस पर सिर्फ विलाप करने की बजाय हमें इसके तीन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करना होगा। पहला बिंदु पुलिस का रवैया है। जिन पुलिसकर्मियों ने अभियुक्तों को पकड़ने की त्वरित कार्रवाई की, उनका काम सराहनीय है। लेकिन ऐसी खबरें भी आई हैं कि पीड़ित छात्र पहले सेक्टर-20 के पुलिस स्टेशन में गए थे, जहां से उन्हें सेक्टर-58 का मामला बता कर टरका दिया गया था। इतनी बड़ी घटना के बाद बदहवास उन पीड़ितों की मदद सेक्टर-20 की पुलिस ने खुद आगे बढ़ कर क्यों नहीं की, इस बात की जांच होनी चाहिए। जितना जरूरी बलात्कारियों को दंड देना है, उतना ही जरूरी उन पुलिसकर्मियों को दंडित करना भी है। पुलिस का महकमा अपने ये दोनों चेहरे एक साथ नहीं रख सकता। उसे यह मानना होगा कि यह मानसिकता भी परोक्ष रूप से बलात्कारियों में ऐसे दुस्साहस को हवा देती है। इसलिए पुलिस और प्रशासन को जनहित में यह बात सार्वजनिक करनी चाहिए कि उन कर्तव्य का उचित ढंग से पालन न करने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई। दूसरा बिंदु अपने नौजवानों के बारे में हमारे समाज का मूल्यांकन का है। अब तक जो नौजवान इस कांड में पकड़े गए हैं, उनमें से एक बीबीए, एक बीसीए और एक बीएससी का छात्र है। इनके अलावा 2 हाई स्कूल में पढ़ रहे हैं। पिछले दिनों आतंकवादी गतिविधियों के लिए गिरफ्तार कुछ युवकों के बारे में यह जान कर हमारा समाज हतप्रभ रह गया था कि उनमें से कुछ उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे या प्रोफेशनल थे। तब सवाल उठाया गया था कि परिवार और समाज इन बच्चों की कैसी परवरिश कर रहे हैं। उसके बाद से बैंक डकैती और लूटपाट में भी ऐसे कई उच्च शिक्षित प्रोफेशनल पकड़े जा चुके हैं। इसलिए परवरिश का सवाल पीछे छूट गया है। अब इसकी पहचान भी जरूरी है कि जिन बुराइयों को लेकर हम सबसे ज्यादा उत्तेजित रहते हैं, उनमें से कितने ऐसे हैं जो इस बलात्कार से ज्यादा घातक हैं। तीसरा बिंदु यहां का वह ग्रामीण समाज है, जिसकी पंचायतें प्रेम करने के आरोप में अपने नौजवान बच्चों के टुकड़े-टुकड़े कर डालती हैं। क्योंकि इस बलात्कार के लिए गिरफ्तार ज्यादातर नौजवान एक ही गांव गढ़ी चौखंडी के हैं। निश्चित रूप से उस गांव के बुजुर्गों, वहां की पंचायतों और वहां की मांओं से भी यह जानना चाहिए कि इस बलात्कार के बारे में उनकी क्या राय है और वे क्या सजा तजवीज करते हैं। क्या वह गांव इतना शर्मसार होगा कि बचाव के लिए वहां का कोई शख्स खड़ा नहीं होगा? इन सभी पक्षों पर विचार करने का मतलब है आत्म निरीक्षण, क्योंकि नैतिकता उपदेश के माध्यम से नहीं थोपी जा सकती। एक अपराध और उसके लिए जिम्मेदार दोषियों की सजा से सिलसिला खत्म नहीं होता, यह जानना जरूरी है कि ऐसे अपराध करने वालों को भय क्यों नहीं लगता। अक्सर यह होता है कि कुछ ऊंचे तबके के युवक अपनी दौलत के बल पर ये अपराध करने से नहीं डरते। उन्हें लगता है कि पैसे के दम पर सारे मामले को रफा दफा कर दिया जाएगा। और ज्यादातर होता भी ऐसा ही है। पुलिस व कानून की लचर व्यवस्था को ढाल बनाकर अपराधी इन कुकृत को अंजाम देते हैं। इस तरह के मामलों में यदि पुलिस शीघ्र व सख्त कार्रवाई करे तो निश्चित रूप से अपराधियों के हौंसले पस्त होंगे।

क्या निश्चित हो पाएगी बेटी की सुरक्षा

बालिका दिवस24 जनवरी राष्ट्रीय बालिका दिवसबालिकाओं के सर्वांगीण विकास तथा उनके प्रति सकारात्मक सोच एवं आर्थिक निर्भरता लाने के लिए महिला बाल विकास मंत्रालय ने 24 जनवरी को प्रति वर्ष राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। इस दिन को बालिकाओं को समर्पित करने के लिए मंत्रालय ने विशेष प्रतीक चिन्ह भी जारी किया है। भारत में महिलाओं की महत्ता को दर्शाने और उनके सशक्तिकरण के लिए महिला दिवस पहले से ही मनाया जाता रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय बालिका दिवस की उपयोगिता और प्रभाव के बारे में चर्चा अनिवार्य है। पहले से चल रही अनेक योजनाओं की पहुंच और उसके लाभ पर गौर करें कहा जा सकता है कि सरकारी नीतियों और योजनाओं में तो कहीं कोई कमी नहीं हैं लेकिन उनके क्रियान्वयन और निगरानी में कुछ कमी अवश्य है जिसकी वजह से देश में बालिकाओं की स्थिति में ज्यादा सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। आज भी देश के हर कोने में महिला और पुरुषों में भेदभाव बरकरार है। अनपढ क़े साथ-साथ पढे लिखे वर्गों में भी यह भेदभाव देखा जा सकता है। राजधानी दिल्ली की बात करें तो कह सकते हैं कि महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली में महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि हुई है। अगर कुल घटनाओं को देखा जाए तो आधे से ज्यादा मामलों में मासूम बच्चियां ही शिकार बनती हैं। सरकार द्वारा कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कई प्रयास किए गए परंतु आज भी स्थिति यह है कि गांवों और शहरों में कन्या भ्रूण हत्या बदस्तूर जारी है। यदि सरकारी आंकड़ों पर गौर किया जाए तो भारत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार समिति को प्रेषित रिपोर्ट में आया है कि प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ 20 लाख बालिकाएं जन्म लेती हैं जिनमें से 30 लाख बच्चियां अपना 15वां जन्मदिन नहीं देख पातीं और उस के पहले ही काल का ग्रास बन जाती हैं। इनमें से एक तिहाई जन्म के प्रथम वर्ष में ही मर जाती हैं। यह आकलन किया गया है कि प्रत्येक छठी महिला की मृत्यु का कारण लिंग-भेद है। बालकों की अपेक्षा, नवजात बालिकाओं में प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है। समान रूप से विपरीत परिस्थितियों में नवजात बालिकाओं की संक्रमण से लड़ने और जीवित रहने की संभावनाएं नवजात बालकों से अधिक होती है। यह विचार अनेक अध्ययनों से सही भी साबित हुआ है।लेकिन उसके बावजूद (एस.आर.एस. सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम द्वारा 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार) जन्म लेने वाले 1000 स्त्री-शिशुओं में से 61 की मृत्यु हो जाती है। विगत एक सौ वर्षों से भारत की जनसंख्या के लिंग अनुपात में लगातार स्त्रियों की कमी होती रही है। 1901 की राष्ट्रीय जनगणना में स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 972 स्त्रियों का था। बाद की प्रत्येक जनगणना बताती है कि स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती गई है। 1991 की जनगणना में 1000 पुरुषों पर 927 स्त्रियां थीं। जो 2001 की जनगणना में बढ़ कर 933 हो गई हैं। इस तरह यहां स्त्रियों की संख्या में कुछ वृध्दि अवश्य होती दिखाई दी थी।लेकिन 1991 में 6 वर्ष तक के बच्चों में लिंग अनुपात प्रति हजार बालकों पर 945 बालिकाओं का था, जो कि 2001 में घट कर मात्र 927 रह गया। इस तरह एक दशक में 18 बालिका प्रति हजार कम हो गई। राजधानी के पॉश इलाकों और झुग्गियों में यह अनुपात क्रमश: 919 और 857 ही रह जाता है। स्पष्ट है कि यह कारनामा वहां हो रहा है, जहां लोग होने वाली संतान के लिंग का चुनाव करने में अर्थ-सक्षम हैं और तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। यहां इस बात की कोई निश्चितता नहीं कि एक लड़की जो भ्रूण हत्या, और शिशु हत्या से बच गई है और आदतन उपेक्षा-चक्र की शिकार नहीं होगी, जो उस की मृत्यु का कारण बन सकता है, क्योंकि उसे भोजन कम मिलेगा। दुनिया को जानने के अवसरों के स्थान पर उसे किसी काम में ठेल दिया जाएगा और उसके स्वास्थ्य और चिकित्सा भगवान भरोसे रहेगी। दयनीय है कि सरकारी और सामाजिक स्तर पर कन्याओं के विकास व सुरक्षा के लिए किए जा रहे भरसक प्रयासों के बावजूद स्थिति यह है। अब देखना यह है कि 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस घोषित करने के बाद क्या आजाद भारत की बेटी की सुरक्षा निश्चित हो पाएगी।

संस्कृति की ये कैसी हिफाजत?

कर्नाटक के मंगलोर क्षेत्र में पब में लड़कियों के साथ हुई बदसलूकी के बाद नेताओं में 'पब संस्कृति' को लेकर बहस छिड़ गई है। भाजपा शासित कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा ने साफ कहा कि वह राज्य में 'पब संस्कृति' को नहीं पनपने देंगे। देश में उन्मुक्त जीवन शैली के प्रसार के कारण समाज में अपनी अहमियत पाए लोगों के दबाव में सकुचाए कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने भी अब राय में पब संस्कृति के नहीं बढ़ने देने का बयान दे दिया है। मंगलोर के एक पब में 24 जनवरी को शराब पीकर नाच-गा रही लड़कियों की श्रीराम सेना के कार्यकताओं द्वारा पिटाई के बाद जिस प्रकार चारों ओर से एक वर्ग ने शोर मचाना शुरू किया उससे मूल मुद्दा ही ओझल हो गया। महिलाओं के साथ दर्ुव्यवहार का मुद्दा अब पब संस्कृति और भारतीय संस्कृति का रूप ले चुका है। कांग्रेस शासित दो राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस बहस में कूद पड़े हैं। येदियुरप्पा ने कहा, हम कर्नाटक में पब संस्कृति को मजबूत होता नहीं देख सकते। लेकिन कानून हाथ में लेने वालों से सख्ती से निपटा जाएगा। येदियुरप्पा ने श्रीराम सेना पर प्रतिबंध लगाने के सवाल पर कोई सीधा जवाब देने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि इस बारे में पुलिस और मंत्रिमंडल के सदस्यों से चर्चा की जाएगी। श्रीराम सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा लडक़ियाें को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया था और उनके साथ दर्ुव्यवहार किया गया था। येदियुरप्पा का बयान ऐसे समय आया है जब श्रीराम सेना के प्रमुख प्रमोद मुत्तालिक ने भाजपा को याद दिलाया है कि राज्य में उसकी सरकार हिन्दुत्व के एजेंडे पर ही बनी है। मुत्तालिक ने सरकार से यह भी कहा था कि राजनीतिक फायदे की खातिर हिन्दूवादी संगठनों को परेशान न किया जाए। मुत्तालिक को पब पर हुए हमले के मामले में आरोपी बनाया गया है। बहरहाल, 'पब संस्कृति' पर बहस में दो और राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल हो गए हैं। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी इसके खिलाफ राय दी है। गहलोत ने यह भी कहा कि वह मॉल में लड़के-लड़कियों को हाथ में हाथ डाले खुले आम घूमने-फिरने की संस्कृति बंद कराना चाहते हैं। भाजपा ने गहलोत के इस बयान को रूढ़िवादी बताया है। उधर, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इतर राय दी है कि पब में जाने वाले बालिग युवा व युवतियां इतने परिपक्व है कि वे अपना निर्णय ले सकें। उन्होंने कहा कि अगर लड़के-लड़कियां साथ-साथ बाहर जाती हैं, तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। इतना ही नहीं राष्ट्रीय महिला आयोग स्थिति का जायजा लेने के लिए एक टीम कर्नाटक भेज रहा है। आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास ने कहा है कि आयोग ने तीन सदस्यों की एक टीम बनाई है जो कर्नाटक जाएगी और हमला का शिकार हुए लोगों से मिलने के साथ-साथ स्थिति का आकलन भी करेगी।यहां गौर करने वाली बात यह है कि मार-पिटाई या विरोध के हिंसक तरीके की आलोचना और पब से जुड़ी अपसंस्कृति दोनों अलग-अलग बातें हैं। पश्चिम से आयातित यह जीवन शैली भारत के आम समाज को स्वीकार्य नहीं हो सकती। ऐसे में इसकी आलोचना की बजाय इस पर सकारात्मक नजरिए से विचार किया जाना चाहिए। इसमें किसी की निजी स्वतंत्रता बाधित करने या निजी जीवन में हस्तक्षेप का प्रश्न नहीं है। वैसे युवक-युवतियों के प्रेम प्रदर्शन एवं पब की अपसंस्कृति के बीच बिल्कुल अन्योन्याश्रिय संबंध नहीं है। पब संस्कृति और महिलाओं पर अपने विचार थोपने का अनुचित तरीका ये दोनों अगल-अलग बातें है। गौरतलब है कि मंगलोर की घटना की चारों तरफ निंदा हुई है। केंद्र सरकार की एक मंत्री ने इस घटना को 'भारत का तालिबानीकरण' तक करार दिया। राज्य सरकार इस मामले में हुई अब तक की कार्रवाई को लेकर भी निशाने पर है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)के दबाव के आगे झुकने का आरोप लगाया जा रहा है। हालांकि उन्होंने इन आरोपों को गलत बताया है और यह भी कहा है कि श्रीराम सेना का भाजपा से कोई संबंध नहीं है। ऐसे में देखना यह होगा कि राज्य सरकार आरोपियों के खिलाफ किस प्रकार की कार्रवाई करती है।और राज्य में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर उठ रहे विवादों का किस प्रकार निपटारा करती है। हालांकि राज्य सरकार दबाव में ही सही लेकिन आरोपियों को गिरफ्तार करने का काम तो कर ही दिया है। अब देखना है कि इन आरोपियाें पर कानून का डंडा कितना चलता है।

महंगी शिक्षा से बढती खाई

निजी स्कूलों की मनमानी से त्रस्त अभिभावकों के लिए एक और बुरी खबर है, अभिभावकों पर 300 से हजार रुपए तक मासिक भार बढ़ गया है। दिल्ली सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी के निजी स्कूलों में स्तरीय आधार पर फीस वृध्दि की मंजूरी दे दी है। मंत्रिमंडल ने यह फैसला एससी बंसल समिति की सिफारिशों के आधार पर किया है। स्कूलों के वर्तमान शुल्क ढांचे के आधार पर 100 रुपए से लेकर 500 रुपए तक फीस बढ़ाई गई है। फीस वृध्दि सितंबर 2008 से प्रभावी मानी जाएगी। स्कूलों को उनके वर्तमान शुल्क ढांचे के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है।यदि कोई स्कूल वर्तमान में 500 रुपए फीस वसूल कर रहा है तो उसे इसमें 100 रुपए बढ़ाने की अनुमति होगी और यदि कोई स्कूल एक हजार रुपए फीस के रूप में ले रहा है तो वह इसमें 200 रुपए की बढ़ोतरी कर सकता है। ण फीस में 1500 रुपए वसूल करने वाले स्कूल 300 रुपए बढ़ा सकेंगे, जबकि 1500 से ऊपर 2000 रुपए तक की फीस लेने वाले स्कूल को 400 रुपए तक की बढ़ोतरी करने की अनुमति होगी। जिन स्कूलों में वर्तमान में दो हजार रुपए से अधिक फीस वसूल की जा रही है, वे 500 रुपए की वृध्दि कर सकते हैं। दरअसल कई निजी स्कूल अपने शिक्षकों और कर्मचारियों को सरकार के समान वेतन देते हैं। इन स्कूलों का तर्क है कि नया वेतन आयोग लागू होने के कारण इन्हें अपने शिक्षकों को भी नया वेतनमान देना होगा। वैसे देखा जाए तो वेतनमान देने वाले निजी स्कूल मुट्ठी भर हैं, लेकिन फीस बढ़ाने में कोई भी स्कूल पीछे नहीं रहने वाला है। निजी स्कूल वेतनमान का फायदा उठा कर फीस में वृध्दि कर लेना चाहते हैं। वैसे इन स्कूलों को दस प्रतिशत तक प्रतिवर्ष फीस बढ़ाने की छूट मिली हुई है। फीस वृध्दि की सबसे बड़ी मार निजी क्षेत्र में काम करने वाले मध्यम वर्ग के लोगों पर पड़ेगी। सरकारी कर्मचारियों को वेतन वृध्दि का लाभ मिल रहा है, इसलिए वे इसे सहन कर लेंगे, लेकिन इन छह लाख सरकारी कर्मचारियों को छोड़ दें तो अन्य सभी लोग निजी क्षेत्र मे काम कर रहे हैं, जिनके लिए कोई वेतन आयोग नहीं है। जिस कदर शिक्षा मंहगी होती जा रही है उसके हिसाब से आम आदमी को कम खर्च में बेहतर शिक्षा सुविधा उपलब्ध कराने के वादे से मुंह मोड़ती कल्याणकारी सरकारें लगता है वैश्वीकरण के आगे बेबस हो गई हैं। तभी तो निजी स्कूलों में पढाई आम आदमी के बच्चों की पहुंच से लगातार दूर होती जा रही है। यही हाल रहा तो यह शिक्षा व्यवस्था ही मैकाले का वह मिशन पूरा करेगी जिसने अंग्रेजों के सामने आम भारतीयों को असहाय व अछूत जैसी श्रेणी में ला खड़ा कर दिया था। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत की मौजूदा शिक्षा पध्दति पूरी तरह भारतीय हो पाई है? संभवत: पूरी तरह नहीं। ऐसे में अभिभावकों पर खर्च का अतिरिक्त बोझ सिर्फ धनी वर्ग के लिए बेहतर शिक्षा की वकालत नहीं तो और क्या है? यह अजब किस्म का विरोधाभास है कि एक तरफ केंद्र या राज्य सरकारों ने गरीब व अक्षम तबके के विकास के लिए आरक्षण की नीति अपना रखी है तो दूसरी तरफ शिक्षाजगत में महंगी शिक्षा को बढ़ावा देकर एक बड़ी खाई पैदा कर रही है। स्पष्ट है कि यह मजदूर के बेटे को मजदूर ही बनाकर रखने की साजिश है। यह कौन सा तर्क है कि कम काबिल मगर संपन्न घर के बच्चे तो इंजीनियर, डॉक्टर या प्रबंधक बन सकते हैं मगर उसके मुकाबले कुशल मगर गरीब घर के बच्चे इन सुविधाओं से वंचित रह जाएं। ताज्जुब है कि संविधान की दुहाई देकर समानता व शिक्षा का मौलिक अधिकार देने की बात करने वाली सरकार भी शिक्षा को महंगी होती देख रही है। कल्याणकारी सरकारें आखिर किसका कल्याण करना चाहती हैं? फिलहाल तो यह समझ से परे है। सरकारी स्कूल, जो कि कम खर्च में सभी के लिए समान काबिलियत प्रदर्शित करने का जरिया थे, बेहद आधुनिकीकरण के अभाव में पिछड़ते जा रहे हैं। निजी स्कूलों को बढ़ावा देने के कारण अब बंद होने की कगार पर हैं। यानी ऐसी दोहरी शिक्षा व्यस्था लादी जा रही है जो शिक्षा के लिहाज से समाज का वर्गीकरण कर रही है। चमचमाते निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के सामने काबिल होने के बावजूद खुद को हीन मानने को मजबूर किए जा रहे हैं गरीब छात्र। गरीब लोगों की पहुंच से दूर रखने की कवायद में वह सब कुछ हो रहा जो नहीं होना चाहिए। स्कूलों का कहना है कि संस्थान के रखरखाव व ढांचागत खर्च में वृध्दि ने फीस बढ़ाने पर मजबूर कर दिया तथाकर्मियों को नए वेतनमान भी देने पड़ेंगे। कुल मिलाकर शिक्षा संस्थान ऐसे किसी रास्ते पर चलने को तैयार नहीं जिससे मेधावी मगर गरीब छात्र भी ऐसे संस्थान में शिक्षा हासिल कर सकें। या तो सरकार सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर को बढाए नहीं तो निजी स्कूलों में शिक्षा को मध्यम वर्ग की पहुंच तक रखे अन्यथा कुछ छात्रवृत्तियां कितनों का भला कर पाएंगी? आखिर कब तक गरीब छात्रों का भविष्य अधर में लटका रहेगा।

प्रेम की अभिव्यक्ति का ये कैसा स्वरूप

पाश्चात्य संस्कृति की देन कहा जाने वाला वेलेन्टाइन डे आज भारत में भी काफी लोकप्रिय हो चला है। इस दिन की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन दिन को मनाया जाना आज एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। जहां कुछ संगठन इस दिन को मनाए जाने की परंपरा को भारतीय संस्कृति पर आघात मानते हुए विरोध कर रहे हैं, वहीं कुछ लोग इस दिन को मनाए जाने में किसी तरह की संस्कृति के साथ खिलावड नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि भले ही वेलेन्टाइन डे पाश्चात्य संस्कृति की देन है लेकिन इसके औचित्य पर सवाल उठाना सरासर बददिमागी है। इसका प्रमाण अभी पिछले दिनों देखने को मिला जब श्री राम सेना संगठन ने इस दिन को मनाने का कडा विरोध किया तो महाराष्ट्र में नवनिर्मित महिला संगठन ने तो जैसे श्री राम सेना के खिलाफ जंग छेड दी। इस विरोध में इन संगठनों के नेताओं के एक आह्वान पर हजारों की संख्या में लोग एकजुट हो गए और न जाने कितने दस्ते बन गए। अगर इन नेताओं के आह्वान में इतना ही दम है, तो इन नेताओं को इन दस्तों का उपयोग समाज में फैली कुरीतियों को भगाने के लिए करना चाहिए, जो वर्षों से हमारे समाज में व्याप्त है। इसमें भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, जाति प्रथा, शिक्षा, असमानता आदि है। अगर ये दस्ते खुद को इन रचनात्मक कार्यों में लगाएं तो निश्चित ही आदर्श समाज की मजबूत नींव रखी जा सकती है।वेलेन्टाइन डे को मनाना कितना उचित है या अनुचित, अथवा इस दिन को मनाने से भारतीय संस्कृति दागदार हो रही है या नहीं यह चिंतन हम संस्कृति के तथाकथित ठेकेदारों पर छोडते हैं। क्योंकि इस बहस का कोई अंत प्रतीत नहीं होता। यदि इस दिन के औचित्य तथा इतनी तेजी से बढती लोकप्रियता के मूल में जाने की कोशिश की जाए तो शायद इस विवाद को कोई समाधान संभव हो पाए। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि पिछले 10 वर्षों में जिस प्रकार वेलेन्टाइन डे का प्रचार-प्रसार हुआ है उसका सबसे प्रमुख कारण बाजार रहा है। चॉकलेट डे, किस डे, रोज डे, हग डे, फ्रेन्डशिप डे आदि दिवस कहीं न कहीं इस बाजारी प्रचार प्रसार की ही देन है। इन दिनों को मनाए जाने की रीति अभी हाल फिलहाल के कुछ वर्षों तक ज्यादा अस्तित्व में नहीं थी। इसके अलावा कुछ ऐसे भी दिवस हैं, जो धीरे-धीरे अपना प्रसार कर रहे हैं, जिनमें मदर्स डे, फादर्स डे और डॉटर्स डे प्रमुख हैं। इन दिवसों को भी बाजार का साथ मिलेगा और मीडिया के माध्यम से इस प्रकार पेश किया जाएगा, जिससे लोग अपने माता-पिता या बेटा-बेटी के साथ प्रेम को दर्शाने के लिए इन दिवसों का इंतजार करेंगे। जबकि हम सभी जानते हैं कि प्रेम को दर्शाने के लिए कोई भी इन दिवसों पर निर्भर नहीं रहता है, क्योंकि ऐसे प्रेम में स्थायित्व की संभावना कम ही रहती है। हाल की घटना में चांद और फिजा की घटना को लिया जा सकता है। जिसका परिणाम भी सभी के सामने है। अगर सभ्यता और संस्कृति के ठेकेदार उसकी रक्षा के प्रति इतने हीं गंभीर हैं, तो सबसे पहले उन्हें अपने घर के लडक़े-लडक़ियों पर अंकुश लगाना चाहिए और समाज में व्याप कुरीतियों को को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। संस्कृति बहती नदी के समान होती है, जिसके बहाव को रोकने पर उसमें सड़न पैदा होने की संभावना बढ ज़ाती है।स्थिति यह है कि आज यदि प्रेमी के पास केवल एक वक्त के भोजन खाने जितने पैसे हैं तो वह खाना छोड देगा लेकिन प्रेमिका के लिए उपहार अवश्य लेकर जाएगा। उधर प्रेमिकाएं भी उपहार के लिए कुछ समय पहले से ही पैसे इकट्ठे करना शुरु कर देती है। इतना ही नहीं अभी कुछ दिन पहले ज्वैलरी डे मनाया गया। इस दिन प्रेमी-प्रेमिकाओं ने एक दूसरे को तोहफे के रूप में गहने देकर इस दिवस को भी प्रचलित करने का प्रयास शुरू कर दिया। जिस प्रकार प्यार का इजहार करने के लिए चॉकलेट डे, रोज डे, ज्वैलरी डे वेलेन्टाइन डे के बहाने महंगे उपहार देने की परंपरा प्रचलित होती जा रही है। इससे स्पष्ट है कि इस दिनों का सीधा संबंध बाजार से है। एक सूचना के अनुसार वेलेन्टाइन डे के उपलक्ष्य पर एक व्यक्ति ने अपनी प्रेमिका के लिए 45 हजार रुपए का फूलों का बूके तैयार करवाया है।यहां प्रेमिका को उपहार देना या वेलेन्टाइन डे मनाने को हाइलाइट न करके तोहफे को बडे स्तर पर प्रचारित किया जा रहा है। हो सकता है इससे प्रेरित होकर दूसरे लोग भी सामने आएं जो उससे भी महंगा बुके खरीद कर प्रचार की इस होड में अव्वल आने का प्रयास करे। ऐसे में इन दिवसों विशेष का संबंघ किसी सभ्यता संस्कृति से न होकर सीधा बाजार की संस्कृति से दिख रहा है।प्रेम की भावना का इजहार किसी भी संस्कृति पर आघात नहीं हो सकता परंतु जिस प्रकार प्रेम के नाम पर उपहारों से भरे बाजारों के द्वारा इस दिन को आकर्षक तथा महत्वपूर्ण बनाने की कोशिश की जा रही है। इसका संस्कृति से कहीं कोई लेना देना नहीं है। लेकिन जिस भाव के लिए यह दिन मनाया जाता है उस दिन का महत्व ही भटका-सा प्रतीत होता है। जिस तरह से बाजारों में महंगे-महंगे तोहफे भरे पडे हैं और लोगों में होड लगी है कि कौन कितना महंगा और आकर्षक तोहफा देता है, वहीं प्रेमिकाएं भी अधिक से अधिक आकर्षक व महंगे उपहार की उम्मीद लगाए रहती हैं। यह तो सरासर प्रेम के मूल्यों पर बाजार का प्रभाव है।