Thursday 19 February 2009
क्या निश्चित हो पाएगी बेटी की सुरक्षा
बालिका दिवस24 जनवरी राष्ट्रीय बालिका दिवसबालिकाओं के सर्वांगीण विकास तथा उनके प्रति सकारात्मक सोच एवं आर्थिक निर्भरता लाने के लिए महिला बाल विकास मंत्रालय ने 24 जनवरी को प्रति वर्ष राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। इस दिन को बालिकाओं को समर्पित करने के लिए मंत्रालय ने विशेष प्रतीक चिन्ह भी जारी किया है। भारत में महिलाओं की महत्ता को दर्शाने और उनके सशक्तिकरण के लिए महिला दिवस पहले से ही मनाया जाता रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय बालिका दिवस की उपयोगिता और प्रभाव के बारे में चर्चा अनिवार्य है। पहले से चल रही अनेक योजनाओं की पहुंच और उसके लाभ पर गौर करें कहा जा सकता है कि सरकारी नीतियों और योजनाओं में तो कहीं कोई कमी नहीं हैं लेकिन उनके क्रियान्वयन और निगरानी में कुछ कमी अवश्य है जिसकी वजह से देश में बालिकाओं की स्थिति में ज्यादा सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। आज भी देश के हर कोने में महिला और पुरुषों में भेदभाव बरकरार है। अनपढ क़े साथ-साथ पढे लिखे वर्गों में भी यह भेदभाव देखा जा सकता है। राजधानी दिल्ली की बात करें तो कह सकते हैं कि महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली में महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि हुई है। अगर कुल घटनाओं को देखा जाए तो आधे से ज्यादा मामलों में मासूम बच्चियां ही शिकार बनती हैं। सरकार द्वारा कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कई प्रयास किए गए परंतु आज भी स्थिति यह है कि गांवों और शहरों में कन्या भ्रूण हत्या बदस्तूर जारी है। यदि सरकारी आंकड़ों पर गौर किया जाए तो भारत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार समिति को प्रेषित रिपोर्ट में आया है कि प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ 20 लाख बालिकाएं जन्म लेती हैं जिनमें से 30 लाख बच्चियां अपना 15वां जन्मदिन नहीं देख पातीं और उस के पहले ही काल का ग्रास बन जाती हैं। इनमें से एक तिहाई जन्म के प्रथम वर्ष में ही मर जाती हैं। यह आकलन किया गया है कि प्रत्येक छठी महिला की मृत्यु का कारण लिंग-भेद है। बालकों की अपेक्षा, नवजात बालिकाओं में प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है। समान रूप से विपरीत परिस्थितियों में नवजात बालिकाओं की संक्रमण से लड़ने और जीवित रहने की संभावनाएं नवजात बालकों से अधिक होती है। यह विचार अनेक अध्ययनों से सही भी साबित हुआ है।लेकिन उसके बावजूद (एस.आर.एस. सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम द्वारा 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार) जन्म लेने वाले 1000 स्त्री-शिशुओं में से 61 की मृत्यु हो जाती है। विगत एक सौ वर्षों से भारत की जनसंख्या के लिंग अनुपात में लगातार स्त्रियों की कमी होती रही है। 1901 की राष्ट्रीय जनगणना में स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 972 स्त्रियों का था। बाद की प्रत्येक जनगणना बताती है कि स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती गई है। 1991 की जनगणना में 1000 पुरुषों पर 927 स्त्रियां थीं। जो 2001 की जनगणना में बढ़ कर 933 हो गई हैं। इस तरह यहां स्त्रियों की संख्या में कुछ वृध्दि अवश्य होती दिखाई दी थी।लेकिन 1991 में 6 वर्ष तक के बच्चों में लिंग अनुपात प्रति हजार बालकों पर 945 बालिकाओं का था, जो कि 2001 में घट कर मात्र 927 रह गया। इस तरह एक दशक में 18 बालिका प्रति हजार कम हो गई। राजधानी के पॉश इलाकों और झुग्गियों में यह अनुपात क्रमश: 919 और 857 ही रह जाता है। स्पष्ट है कि यह कारनामा वहां हो रहा है, जहां लोग होने वाली संतान के लिंग का चुनाव करने में अर्थ-सक्षम हैं और तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। यहां इस बात की कोई निश्चितता नहीं कि एक लड़की जो भ्रूण हत्या, और शिशु हत्या से बच गई है और आदतन उपेक्षा-चक्र की शिकार नहीं होगी, जो उस की मृत्यु का कारण बन सकता है, क्योंकि उसे भोजन कम मिलेगा। दुनिया को जानने के अवसरों के स्थान पर उसे किसी काम में ठेल दिया जाएगा और उसके स्वास्थ्य और चिकित्सा भगवान भरोसे रहेगी। दयनीय है कि सरकारी और सामाजिक स्तर पर कन्याओं के विकास व सुरक्षा के लिए किए जा रहे भरसक प्रयासों के बावजूद स्थिति यह है। अब देखना यह है कि 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस घोषित करने के बाद क्या आजाद भारत की बेटी की सुरक्षा निश्चित हो पाएगी।
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